मुफ्त सौगात पर सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि राजनीतिक दलों और व्यक्तियों को संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने के उद्देश्य से चुनावी वादे करने से नहीं रोका जा सकता तथा ‘फ्रीबीज’ (मुफ्त सौगात) शब्द और वास्तविक कल्याणकारी योजनाओं के बीच अंतर को समझना होगा। शीर्ष न्यायालय ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का उल्लेख करते हुए कहा कि मतदाता मुफ्त सौगात नहीं चाह रहे, बल्कि वे अवसर मिलने पर गरिमामय तरीके से आय अर्जित करना चाहते हैं। न्यायालय ने कहा, हम सभी को एक पुरानी कहावत याद रखनी चाहिए कि ‘बिना मेहनत के कुछ नहीं मिलता’। चिंता सरकारी धन को खर्च करने के सही तरीके को लेकर है। प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, आभूषण, टेलीविजन सेट, इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं को मुफ्त बांटने के प्रस्ताव और वास्तविक कल्याणकारी योजनाओं की पेशकश में अंतर करना होगा। पीठ में न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी और न्यायमूर्ति हिमा कोहली भी शामिल हैं। यह पीठ चुनावों में मुफ्त सौगात के वादों के मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने पर विचार कर रही है। न्यायालय ने कहा कि मुफ्त चीजों के वितरण को नियमित करने का मुद्दा जटिल होता जा रहा है। पीठ ने जनहित याचिका पर सुनवाई के लिए 22 अगस्त की तारीख तय करते हुए सभी हितधारकों से प्रस्तावित समिति के संबंध में अपने सुझाव देने को कहा। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, आपमें से कुछ लोगों ने इस बात का सही उल्लेख किया है कि संविधान का अनुच्छेद 38 (2) कहता है कि सरकार को आय में असमानताओं को कम करने, न केवल अलग-अलग लोगों में बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले या विभिन्न कार्य करने वाले लोगों के समूह के बीच दर्जे, सुविधाओं तथा अवसरों में असमानताओं को दूर करने का प्रयास करना है। उन्होंने कहा, आप किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति को ऐसे वादे करने से नहीं रोक सकते जो सत्ता में आने पर संविधान में उल्लेखित इन कर्तव्यों को पूरा करने के मकसद से किए जाते हैं। प्रश्न यह है कि वैध वादा वास्तव में क्या है।
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सीजेआई ने किया सवाल?
न्यायमूर्ति रमन्ना ने कहा, क्या निशुल्क बिजली और अनिवार्य शिक्षा के वादे को मुफ्त सौगात कहा जा सकता है। क्या छोटे और सीमांत किसानों को कृषि को लाभकारी बनाने के लिहाज से बिजली, बीजों और उवर्रक पर सब्सिडी के वादे को मुफ्त सौगात कहा जा सकता है? उन्होंने कहा, क्या हम मुफ्त और सभी को स्वास्थ्य सुविधा देने के वादे को ‘फ्रीबीज’ कह सकते हैं? क्या प्रत्येक नागरिक को निशुल्क सुरक्षित पेयजल देने का वादा मुफ्त की योजना कहा जा सकता है।
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मनरेगा का दिया उदाहरण
अदालत ने कहा कि फिलहाल चिंता की बात यह है कि जनता के पैसे को खर्च करने का सही तरीका क्या हो सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अकेले वादों के आधार पर ही राजनीतिक दलों को जीत नहीं मिलती। चीफ जस्टिस ने इस दौरान मनरेगा का उदाहरण भी दिया। उन्होंने कहा कि कई बार राजनीतिक दल वादे भी करते हैं, लेकिन उसके बाद भी जीत कर नहीं आ पाते। अदालत ने अब इस मामले की सुनवाई अगले सप्ताह करने का फैसला लिया है।
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मुफ्त वादे पर रोक लगाने याचिका
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में मुफ्त वादे करने वाली राजनीतिक पार्टियों को प्रतिबंधित करने के लिए अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने याचिका दायर की है। पिछली सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील ने मुफ्त घोषणा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द करने की दलील दी थी। इस पर अदालत ने कहा था कि यह हमारा काम नहीं है। इस पर कानून बनाना है तो केंद्र सरकार बनाए।
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