नई बहस की शुरुआत? कानून में वैवाहिक दुष्कर्म अपराध नहीं, पर SC ने गर्भपात का आधार माना

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सभी महिलाओं को 24 हफ्ते तक के भ्रूण के गर्भपात की अनुमति दे दी। इस फैसले में कोर्ट ने वैवाहिक दुष्कर्म पर भी अपनी टिप्पणी की। ये पहली बार है जब सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले में आंशिक रूप से ही सही वैवाहिक दुष्कर्म को मान्यता मिली है। जबकि, कानून वैवाहिक दुष्कर्म को मान्यता नहीं देता। वैवाहिक दुष्कर्म को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक अलग मामले में सुनवाई चल रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि गुरुवार के फैसले का असर इस मामले पर भी पड़ सकता है।

आखिर वैवाहिक दुष्कर्म पर देश का मौजूदा कानून क्या कहता है? इसे लेकर सरकार और कोर्ट का क्या रुख रहा है? गर्भपात मामले से जुड़ा फैसला कैसे वैवाहिक दुष्कर्म को लेकर नए सिरे से बहस छेड़ सकता है? आइये समझते हैं…

सबसे पहले जानिए गुरुवार को वैवाहिक दुष्कर्म पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने वैवाहिक दुष्कर्म को रेप के दायरे में रखते हुए विवाहित महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को परिभाषित किया। कोर्ट ने शादीशुदा महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा को दुष्कर्म के दायरे में रखने की बात कही। कोर्ट ने कहा कि दुष्कर्म का अर्थ है बिना सहमति के संबंध, वैवाहिक संबंधों में अंतरंग पार्टनर की यौन हिंसा एक वास्तविकता है। ऐसे में महिला बिना इच्छा के गर्भवती हो सकती है। अगर ऐसे जबरन संबंधों की वजह से पत्नी गर्भवती होती है, तो उसे गर्भपात का अधिकार है।’

वैवाहिक दुष्कर्म पर सरकार क्या कहती है?

केंद्र सरकार ने 2017 में दिल्ली हाईकोर्ट में कहा था कि वैवाहिक दुष्कर्म का अपराधिकरण भारतीय समाज में विवाह की व्यवस्था को अस्थिर कर सकता है। ऐसा कानून पति के उत्पीड़न के हथियार के रूप में काम करेगा।

कोर्ट के आदेश से वैवाहिक दुष्कर्म को लेकर क्या बदल सकता है?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए हमने संविधान विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता से बात की। विराग कहते हैं कि वैवाहिक दुष्कर्म के बारे में फैसले के हिस्से से सामाजिक विग्रह के साथ संवैधानिक विवाद भी हो सकते हैं।
विराग कहते हैं, ‘इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गर्भधारण और गर्भपात के बारे में व्यस्क महिला के मौलिक अधिकारों को परिभाषित किया है जो संविधान के लिहाज से बहुत ही अच्छा है। अविवाहित महिला की तर्ज पर विवाहित महिला को भी 24 सप्ताह तक गर्भपात का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन इस अधिकार को देने के लिए वैवाहिक दुष्कर्म को मान्यता देने से कई विवाद खड़े हो सकते हैं।’ विराग सवाल पूछते हैं कि अगर ये फैसला नजीर माना जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार सरकार नियमों में जरूरी बदलाव करेगी?

तो क्या कानून में बदलाव जरूरी होगा?
विराग कहते हैं, ‘संविधान में शक्तियों के विभाजन के अनुसार कानून बनाने का अधिकार संसद को और उसकी वैधानिकता की जांच करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है। वैवाहिक दुष्कर्म के बारे में दिल्ली उच्च न्यायालय के दो जजों ने मई 2022 में विरोधाभासी फैसला दिया था। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने नोटिस जारी करके फरवरी 2023 में मामले को सुनवाई के लिए रखा है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक जज के अनुसार आईपीसी की धारा-375 के अपवाद 2 के भीतर वैवाहिक दुष्कर्म को लाने के लिए कानून में बदलाव करना होगा, जिसके लिए संविधान के तहत संसद के पास ही शक्ति है ।’
गर्भपात से जुड़ा यह आदेश तीन जजों की बेंच ने दिया है। जबकि वैवाहिक दुष्कर्म के मामले की सुनवाई दो जजों की बेंच कर ही है। ऐसे में क्या वैवाहिक दुष्कर्म के मामले में कोर्ट का फैसला गर्भपात वाले फैसले से प्रभावित हो सकता है?
विराग गुप्ता कहते हैं, ‘जस्टिस चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच के वैवाहिक दुष्कर्म के आधार पर विवाहित महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को परिभाषित करने से संवैधानिक विवाद हो सकता है। दो जजों की बेंच जो मुख्य मामले की सुनवाई करेगी उसके ऊपर तीन जजों की बेंच का फैसला प्रभावी होगा। जैसे- पुट्टूूस्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने प्राइवेसी के मामले में समलैंगिकता के पक्ष में तर्क दिये थे। उसके बाद पांच जजों की बेंच ने आईपीसी की धारा-377 के तहत समलैंगिकता को अनापराधिक घोषित कर दिया था। कानून को गलत घोषित करना और नया कानून बनाना दोनों बिल्कुल अलग हैं। वैवाहिक दुष्कर्म को मान्यता देने के लिए कानून में बदलाव करने का अधिकार सरकार और संसद को है। गर्भपात पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला प्रगतिशील और संविधान सम्मत है लेकिन वैवाहिक दुष्कर्म पर फैसले के अंशों पर संवैधानिक विवाद की स्थिति बन सकती है।’

क्या ये फैसला कुछ निश्चित शर्तों के साथ लगेगा या सभी पर लागू होगा?
विराग गुप्ता कहते हैं, ‘हमने 66A के मामले में देखा है कि किस तरह से कोर्ट के फैसले के बाद भी पुलिस अधिकारी इसका दुरुपयोग कर रहे थे। उससे एक बड़ी बात ये सामने आई कि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार कानून की किताबों में भी बदलाव करने की जरूरत है। जिससे व्याख्या की गुंजाइश नहीं रहे। गर्भपात पर कोर्ट का फैसला एक व्यक्तिगत मामले में आया है। पीआईएल से जुड़े मामलों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश की सभी अदालतों में लागू होता है। लेकिन व्यक्तिगत मामलों में कोर्ट का यह फैसला पूरे देश में नजीर बनना मुश्किल है। लेकिन इस फैसले को आधार मानकर दूसरे मामलों में लोग अदालत से राहत की मांग कर सकते हैं। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से जब तक फाइनल फैसला नहीं आता या फिर संसद से कानून में बदलाव नहीं होता। तब तक मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में लाया जाना मुमकिन नहीं है।’

0-00000000

प्रातिक्रिया दे