कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी ठीक इसी तरीके का प्रयास किया था जो इस वक्त बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे हैं। यानी कि विपक्षी दलों के नेताओं को जोड़ने की कवायद। दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित एक बड़े कार्यक्रम से पहले माहौल तो बहुत बना लेकिन एक बैठक के बाद विपक्षियों की एकजुटता का क्या हुआ यह राजनीतिक गलियारों में सबको पता है। अब सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि आखिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास ऐसा कौन सा फार्मूला है जो ममता बनर्जी के फार्मूले से ज्यादा मजबूत और कारगर है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सभी दलों को एकजुट करने में कई मामलों पर तमाम तरह के पेंच भी फंसते हुए नजर आ रहे हैं। इसमें कांग्रेस की होने वाली भारत जोड़ो यात्रा से लेकर विपक्षी दलों के नेताओं में “सर्वमान्य नेता” के चेहरे जैसा मुद्दा भी शामिल है।
विपक्ष को जोड़ने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मंगलवार को दिल्ली में दूसरा दिन होगा। जिस तूफानी दौरे से नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के लिए मुलाकातों का सिलसिला आगे बढ़ा रहे हैं, उससे राजनैतिक सरगर्मियां तो बढ़ ही रही हैं। अपनी तीन दिवसीय यात्रा पर दिल्ली पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर से कोशिश कर सभी दलों के नेताओं को एक छतरी के नीचे लाने की तैयारी करने में लग गए हैं। इस सिलसिले में पहले से तय मुलाकातों के दौर में राहुल गांधी समेत दक्षिण के कुछ नेताओं से सोमवार को मिलना भी हुआ। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह दौरा निश्चित तौर पर विपक्षी दलों को जोड़ने का बड़ा प्रयास तो है लेकिन इसमें कई मामले ऐसे हैं जो कि आगे अड़चनें भी पैदा कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक बीएन पाठक कहते हैं की नीतीश कुमार का दौरा उस वक्त शुरू हुआ है जब कांग्रेस अपनी भारत जोड़ो पदयात्रा बहुत जोश और जोर-शोर से शुरू करने वाली है। दरअसल कांग्रेस की इस यात्रा से कांग्रेस के ही नेताओं में इस बात को लेकर मंथन चल रहा है कि वह किसी दूसरे राजनीतिक दल के नेता को फ्रंट लाइन में आकर पड़ा चेहरा ना बनने दें। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है जब कांग्रेस इतनी मेहनत करके कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक पैदल यात्रा कर रही है तो आने वाले चुनावों में विपक्ष के बड़े नेता के तौर पर उनकी पार्टी का चेहरा ही सामने रहे।
क्योंकि देश के ज्यादातर विपक्षी पार्टियों से मिलने का सिलसिला बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिल्ली से शुरू किया है ऐसे में अटकलों का बाजार यही है कि नीतीश कुमार खुद को बड़े चेहरे के तौर पर आगे रख रहे हैं। हालांकि पार्टी और खुद नीतीश कुमार की ओर से ऐसी कोई बात सामने नहीं रखी गई। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि नीतीश कुमार जितने राजनीतिक दलों के नेताओं से मुलाकातें कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर पार्टियों की ओर से उनके सबसे बड़े नेता को प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर रखा जाता है। राजनीतक विश्लेषक एसएल पुनिया कहते हैं कि यही मामला सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। उनका कहना है कि बैठकों में एकजुटता तो निश्चित तौर पर मुद्दा होती है लेकिन उस एकजुटता में चेहरा किसका आगे रखा जाए यह भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। उनका कहना है कि जब तक सभी विपक्षी दलों के नेताओं की आपस में सहमति ना हो जाए और एक सर्वमान्य नेता के तौर पर किसी चेहरे का ऐलान ना हो जाए तब तक राजनीतिक गलियारों में यह कयास तो हमेशा लगते रहेंगे। क्योंकि हर दल का बड़ा नेता प्रधानमंत्री का ही दावेदार माना जाता है। और यह सब बातें तभी संभव है जब विपक्षी दलों की एकजुटता हो और एक मंच से चुनाव लड़ने की सहमति हो।
इसी मामले में कांग्रेस से जुड़े वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पार्टी ने बीते कुछ दिनों में बहुत मेहनत की है। खासतौर से उदयपुर में हुए चिंतन शिविर के बाद तो पार्टी ने बदलाव के लिए ना सिर्फ प्रयास किए बल्कि देश के हर कोने में जमीन पर उतरकर संघर्ष करना शुरू किया है। उक्त नेता कहते हैं कि बुधवार से उनकी पार्टी देश में सबसे बड़ा पैदल मार्च भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत करने जा रही है। उनका तर्क है कि देश की सभी विपक्षी पार्टियों को अगर जमीनी संघर्ष के तौर पर देखा जाए तो उसने कांग्रेस ही सबसे आगे खड़ी नजर आ रही है। ऐसे में आने वाले चुनावों में पार्टी अपनी बनाई हुई जमीन तो नहीं खोएगी। राजनीतिक विश्लेषक अरुण शर्मा कहते हैं कि यह बात तो जायज भी है की जब पार्टी मेहनत करेगी तो उसके कार्यकर्ता और पार्टी के नेता चाहेंगे कि उसके नेता को सर्वमान्य नेता के तौर पर स्वीकार किया जाए।
राजनीतिक विश्लेषक शर्मा कहते हैं कि इस बात को जरूर ध्यान में रखना होगा कि आने वाले दिनों में होने वाला विपक्षी दलों का गठबंधन कांग्रेस के साथ होगा या कांग्रेस के बगैर होगा। उनका कहना है कि नीतीश कुमार की राहुल गांधी से मुलाकात तो हुई है लेकिन उस मुलाकात के महन दो दिन बाद ही कांग्रेस की एक बहुत बड़ी यात्रा होने वाली है। ऐसे में संभव यह भी है की कांग्रेस को छोड़कर दूसरे तमाम विपक्षी दल एकजुट हो जाएं, लेकिन शर्मा कहते हैं यह सब तब तक कयास के तौर पर माने जाएंगे जब तक कि विपक्षी दलों को एकजुट करने के प्रयास अंतिम चरण में नहीं पहुंच जाते पूर्व या उनका कहना है कि यह अभी शुरुआती दौर में होने वाली मुलाकातों का सिलसिला है इसलिए तमाम तरह की अटकलों और तमाम तरह के राजनीतिक समीकरणों को जोड़कर देखा जा रहा है। शर्मा इस बात को मानते हैं कि जब तक सभी विपक्षी पार्टियों की ओर से एक सर्वमान्य नेता के चेहरे की स्वीकारोक्ति नहीं होगी तब तक मुद्दों के आधार पर पक्षी दलों को एकजुट करने में चुनौतियां बहुत आएंगी।

