महाराष्ट्र में चल रहे सियासी ड्रामे का एक अध्याय बुधवार को खत्म हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को ही फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया इसके कुछ देर बाद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया। उद्धव ने फेसबुक पर लाइव आकर अपने इस्तीफे का एलान किया।  
अब सवाल ये उठता है कि इस सियासी संकट में आगे क्या होगा? राज्यपाल के फ्लोर टेस्ट के आदेश का अब क्या होगा? बागी विधायकों का क्या होगा? नई सरकार का स्वरूप कैसा हो सकता है? आइए जानते हैं…
इस सियासी संकट में आगे क्या होगा?
उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के साथ ही गुरुवार को होने वाले बहुमत परीक्षण अब नहीं होगा। राज्य में अब नई सरकार के गठन की कवायद शुरू होगी। राज्यपाल अब सबसे बड़े दल यानी भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दे सकते हैं। हालांकि, हालात को देखते हुए भाजपा खुद भी सरकार बनाने का दावा पेश कर सकती है। भाजपा के खेमे में अभी से जश्न शुरू हो गया है। इससे साफ है कि भाजपा अब सरकार बनाने के करीब है। 
शिवसेना के बागियों का क्या होगा?
शिवसेना के बागी विधायक लगातार भाजपा के साथ गठबंधन की बात करते रहे हैं। ऐसे में ये बागी गुट भाजपा को समर्थन देगा ये तय माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि बागी विधायक नई सरकार का भी हिस्सा होंगे। एकनाथ शिंदे को उपमुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। उद्धव ठाकरे सरकार में बागी गुट के नौ विधायक मंत्री थे। नई सरकार में ये संख्या बढ़ सकती है। 
शिवसेना का क्या होगा?
बागी विधायक लगातार कह रहे हैं कि वो शिवसेना में हैं। यानी, बागी विधायक शिवसेना पर भी दावा ठोक रहे हैं। संख्या बल की बात करें तो बागी गुट के पास विधायकों के साथ ज्यादातर सांसदों का भी समर्थन बताया जा रहा है। पार्टी पर दावे की लड़ाई अगर बढ़ती है तो मामला चुनाव आयोग भी जा सकता है। इस स्थिति में चुनाव आयोग तय करेगा की असली शिवसेना किसके पास है। 
क्या शिवसेना को तोड़ने के बाद उसका चुनाव चिह्न भी हथिया सकते हैं शिंदे?
1968 का इलेक्शन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर चुनाव आयोग (ईसी) को किसी पार्टी के चुनाव चिह्न पर फैसला लेने की छूट देता है। इसी नियम के तहत ईसी किसी पार्टी का चुनाव चिह्न तय करता है और इसके बंटवारे पर भी फैसला सुनाता है। 
अगर किसी रजिस्टर्ड और मान्यता प्राप्त पार्टी के दो धड़े बन जाते हैं तो इलेक्शन सिंबल ऑर्डर का पैरा 15 कहता है कि चुनाव चिह्न किसे मिलेगा, इसका फैसला सुनाने के लिए निर्वाचन आयोग पूरी तरह स्वतंत्र है। यह भी हो सकता है कि ईसी चुनाव चिह्न किसी को न दे। 
इस नियम के मुताबिक, “चुनाव आयोग एक ही पार्टी में दो विपक्षी धड़ों की बात को पूरी तरह सुनेगा और सभी तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करेगा। इसके अलावा ईसी दोनों धड़ों के प्रतिनिधियों को भी सुनेगा। जरूरत पड़ी तो आयोग तीसरे पक्ष को भी सुन सकता है और फिर चुनाव चिह्न किसी एक धड़े को देने या न देने से जुड़ा फैसला सुना सकता है।” इस नियम की सबसे खास बात यह है कि आयोग का फैसला सभी पक्षों के लिए सर्वमान्य होगा।
चुनाव आयोग किसे दे सकता है चुनाव चिह्न?
किसी विवाद की स्थिति में चुनाव आयोग सबसे पहले दोनों धड़ों के समर्थन को देखेगा। पार्टी संगठन और विधायक दल से किस धड़े को ज्यादा समर्थन है। इसके बाद आयोग उस राजनीतिक दल की उच्च समितियों और निर्णय लेने वाले संस्थानों की जानकारी जुटाता है और इसकी पुष्टि करता है कि आखिर पार्टी के दोनों धड़ों को कितने नेताओं का समर्थन हासिल है। आखिर में ईसी इन पक्षों के समर्थक सांसदों और विधायकों की जानकारी लेता है। 
पार्टी टूटने के ऐसे हालिया मामलों में चुनाव आयोग ने अपने फैसले पार्टी के पदाधिकारियों और चुने हुए नेताओं के आधार पर दिए हैं। अगर किसी कारण से एक संगठन में दो धड़ों के समर्थन की तस्वीर साफ नहीं होती है तो आयोग ज्यादा सांसदों और विधायकों के समर्थन वाले गुट को ही उस दल का असली अधिकारी मानता है। 
हालांकि, चुनाव आयोग के सामने भी ऐसी ही जटिल स्थिति पैदा हो चुकी है। दरअसल, 1987 में जब तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन की मृत्यु हुई थी। तब पार्टी का एक धड़ा एमजीआर की पत्नी जानकी के साथ था। वहीं दूसरा धड़ा जे जयललिता के साथ था। मजेदार बात यह है कि जहां जानकी को अधिकतर विधायकों और सांसदों का समर्थन था तो वहीं जयललिता को पार्टी सदस्यों और कैडरों की ओर से सपोर्ट मिला था। हालांकि, ईसी को इस मामले में फैसला नहीं लेना पड़ा था, क्योंकि बाद में दोनों ही धड़ों ने समझौता कर लिया था।
चुनाव आयोग के सामने और क्या विकल्प?
चुनाव आयोग दो धड़ों के दावे को लेकर फैसला सुना सकता है। इसके अलावा वह दूसरे धड़े को अलग चुनाव चिह्न के साथ नया राजनीतिक दल बनाने की छूट भी दे सकता है। अगर ऐसा मौका आता है कि चुनाव आयोग किसी धड़े के पक्ष में फैसला नहीं सुना पाए तो वह पार्टी के चुनाव चिह्न को फ्रीज कर देता है और दोनों ही धड़ों को अलग-अलग चुनाव चिह्न और नाम के साथ रजिस्टर करने के निर्देश देता है। 
चूंकि यह प्रक्रिया काफी लंबी है, इसलिए चुनाव के दौरान विवाद की स्थिति में आयोग पार्टी के चिह्न और नाम को फ्रीज करता है और दोनों धड़ों से अस्थायी तौर पर एक अलग चुनाव चिह्न चुनने का विकल्प देता है। अगर आगे कभी ये दोनों धड़े सुलह करके एक हो जाते हैं और पार्टी का पुराना चिह्न वापस लेना चाहते हैं तो चुनाव आयोग इन्हें पार्टी का नाम और सिंबल लौटा सकता है।


 
                                                    
                                                                                                 
                                                    
                                                                                                 
                                                    
                                                                                                 
                                                    
                                                                                                 
                                                    
                                                                                                 
			     
                                        
                                     
                                        
                                     
                                        
                                    