महाराष्ट्र के पॉलिटिकल ड्रामे का अंत कैसे होगा, किसी को नहीं पता। उद्धव सरकार (Uddhav Sarkar) बचेगी या गिरेगी, यह वो सवाल है जिसका जवाब हर कोई जानना चाहता है लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है वह राजनीतिक परिदृश्य जो इस सियासी संकट के बाद सामने आ सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों ने महाराष्ट्र (Maharashtra) के राजनीतिक संकट के एक अलग पहलू को समझाने की कोशिश की है। उन्होंने संभावना जताई है कि महाराष्ट्र में अगर सरकार गिरती है और शिवसेना में फूट पड़ती है तो उससे न सिर्फ पार्टी कमजोर दिखेगी बल्कि कोई और है जिसकी बेचैनी बढ़ सकती है। इतना ही नहीं, राज्य में भाजपा का प्रभाव पहले से बढ़ा है और नई परिस्थितियों में यहां सियासत की दो नई धुरी तैयार हो सकती है।
अब शिवसेना किसकी?
इस ड्रामे के दो पहलू हैं। पहला, यह कि सरकार कौन बनाएगा? अब तक की स्थिति यह है कि शिवसेना में फूट पड़ चुकी है। एकनाथ शिंदे और बीजेपी नेतृत्व उस पल का इंतजार कर रहे हैं कि कब उन्हें 37 बागी विधायकों का जादुई आंकड़ा हासिल हो जाए। अगर बागी शिंदे गुट को शिवसेना के विधायकों का दो-तिहाई समर्थन मिलता है तो शिंदे कानूनी रूप से यह दावा कर सकते हैं कि उद्धव ठाकरे नहीं, वह विधानसभा में शिवसेना के नेता हैं। इसके बाद शिंदे के नेतृत्व वाले ‘आधिकारिक’ शिवसेना समूह के साथ भाजपा के सरकार बनाने का रास्ता साफ हो जाएगा। उनके साथ निर्दलीय और छोटी पार्टियां भी आ जाएंगी क्योंकि हमें याद रखना चाहिए कि 20 ऐसे विधायकों ने हाल में हुए MLC चुनावों में भाजपा उम्मीदवार को वोट किया था।
लेकिन दूसरी संभावना भी बनती है। अगर शिंदे जादुई नंबर जुटाने में असफल रहते हैं तो सवाल यह है कि क्या कुछ समय के लिए महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लग सकता है? और क्या जब भाजपा और शिंदे सेना सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच जाएगी तो असेंबली बहाल होगी?
देवेंद्र नहीं… और भाजपा के साथ जाएंगे उद्धव?
एक परिस्थिति यह भी बन सकती है कि सियासी समीकरण बदले और उद्धव ठाकरे अपनी और पार्टी की इमेज को बचाने के लिए बीजेपी सरकार को सपोर्ट करने के लिए तैयार हो जाएं। वह शर्त रख सकते हैं कि बीजेपी सरकार बनाए लेकिन सीएम देवेंद्र फडणवीस नहीं कोई और बने, जो उद्धव पर लगातार हमले करते रहे हैं।
इस बीच, शिवसेना के नेता संजय राउत ने बागियों के सामने पेशकश की है कि अगर वे मुंबई लौट आते हैं तो सेना एमवीए गठबंधन को तोड़ने के बारे में सोच सकती है। दरअसल, बागियों की मांग है कि शिवसेना को भाजपा के साथ सरकार बनाना चाहिए।
भाजपा के लिए एक और शिंदे फैक्टर है। शिंदे बड़े नेता है, 2019 में जब एमवीए में सीएम के नाम पर मंत्रणा चल रही थी तो उनके नाम पर भी चर्चा हुई थी, हालांकि बाद में शरद पवार ने उद्धव के नाम पर जोर दिया। फिलहाल भाजपा शिंदे और उनके गुट को अपने साथ खींचना चाहेगी। वह नहीं चाहेगी कि 37 विधायकों का समूह ऐसे ही चुनौती देता रहे।
भाजपा की मंशा समझिए
इस ड्रामे की दूसरी पिक्चर थोड़ी बड़ी है। भाजपा न केवल महाराष्ट्र में सरकार बनाने के बारे में सोच रही है बल्कि उसकी मंशा शिवसेना को तगड़ा झटका देने की है जिससे वह आगे फिर कभी चुनौती देने की स्थिति में न पहुंच सके। आज आलम यह है कि राज्य में भाजपा का जनाधार बढ़ा है और शिवसेना का प्रभाव कमजोर पड़ा है।
ऐसे में सवाल उठता है कि शिवसेना के पास विकल्प क्या हैं? साफ है कि उद्धव पार्टी के भीतर असहमति और असंतोष की आवाज को भांपने में फेल रहे। हो सकता है इसकी वजह उनका कुछ समय अस्वस्थ रहना रहा हो लेकिन बड़ा कारण उनके अपने ही विधायकों और मंत्रियों की पहुंच से दूर होना बताया जा रहा है। बागी विधायकों को वापस लाने के लिए सीएम का आधिकारिक आवास छोड़ना और भावुक स्पीच देना उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। उन्होंने सीएम पद छोड़ने वाली जो बात कही, वह एक तरह से नैतिकता दिखा रहे थे। ठाकरे ने बुधवार को कहा था कि अगर बागी विधायक यह कहते हैं कि वह उन्हें (ठाकरे) मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते तो वह अपना पद छोड़ने के लिए तैयार हैं। इतना ही नहीं, सीएम ने कहा कि अगर शिव सैनिकों को लगता है कि वह (ठाकरे) पार्टी का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं हैं तो वह शिवसेना पार्टी के अध्यक्ष का पद भी छोड़ने के लिए तैयार हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस संवाद से उद्धव पार्टी काडर से जुड़ने की कोशिश कर रहे थे। सालों से शिवसैनिक ठाकरे परिवार के वफादार रहे हैं। वे हर चुनाव में शिवसेना को वोट देते आ रहे हैं क्योंकि वे खुद को सैनिक मानते हैं। उद्धव को शायद लगा होगा कि नाराज सेना काडर दबाव बनाएगा तो विधायक वापस आ सकते हैं। हालांकि अब तक ऐसा कुछ नहीं दिखा।
कमजोर पड़ेंगे उद्धव?
माना जा रहा है कि अगर पार्टी का विधायक दल बिखरता है तो विधानसभा के बाहर संगठन में इसका प्रभाव अलग पड़ सकता है। शिवसेना का राजनीतिक भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि टूट कैसे होती है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या उद्धव ठाकरे संगठन पर से नियंत्रण खो देंगे? क्या शिवसेना बिना ठाकरे परिवार के चलेगी? इसी से जुड़ा एक और सवाल अक्सर पूछा जाता रहता है कि क्या कांग्रेस बगैर गांधी परिवार के सर्वाइव कर सकती है?
1991 में दिग्गज चेहरे छगन भुजबल गए, 2005 में नारायण राणे गए, उद्धव के कजिन राज ठाकरे भी 2005 में अलग हो गए लेकिन ठाकरे का दबदबा कायम रहा। आज के संदर्भ में एक चीज तय है कि शिंदे के सफल होने के बाद उद्धव की सेना एक कमजोर पार्टी बनकर रह जाएगी।
ज्यादा नुकसान में तो कांग्रेस है
हालांकि कोई और भी है जिसे महाराष्ट्र में शिवसेना के अलावा तगड़ा झटका महसूस हो रहा होगा। वह कांग्रेस है। शिवसेना के साथ जाने का फैसला कैसा भी रहा हो, आज महाराष्ट्र ही एक बड़ा राज्य है जहां सत्ता में कांग्रेस शामिल है। अगर MVA सरकार गिरती है तो कांग्रेस फाइनैंशियल पावरहाउस कहे जाने वाले राज्य से एक्जीक्यूटिव कंट्रोल खो देगी। भले ही एमवीए में वह जूनियर पार्टनर हो लेकिन इसका प्रभाव बहुत है। यहां सत्ता से बाहर होने के बाद, कमजोर केंद्रीय नेतृत्व के चलते राजनीतिक रूप से कमजोर दिखने वाली कांग्रेस और भी खराब स्थिति में पहुंच सकती है। इसके विधायकों को दूसरे समूह तोड़ने की कोशिश कर सकते हैं। वैसे भी, एमएलसी चुनावों में कई विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की थी।

