राजद्रोह कानून पर सरकार का बदला रुख, कहा-प्रावधानों पर करेंगे पुनर्विचार

—–सुप्रीम कोर्ट में गृह मंत्रालय ने दायर किया तीन पेज का हलफनामा

–राजद्रोह के कानून की वैधता के अध्ययन में समय नहीं लगाने का किया अनुरोध

–सरकार ने कहा-औपनिवेशिक कानून हटाने के लिए कर रहे काम

नई दिल्ली। केंद्र ने यह भी कहा कि वह ‘इस महान देश की संप्रभुता और अखंडता की’ रक्षा करते हुए नागरिक स्वतंत्रताओं के बारे में अनेक विचारों और चिंताओं से अवगत है। गृह मंत्रालय ने एक हलफनामे में औपनिवेशिक चीजों से छुटकारा पाने के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि वह नागरिक स्वतंत्रताओं और मानवाधिकारों के सम्मान के पक्षधर रहे हैं और इसी भावना से 1500 अप्रचलित हो चुके कानूनों को समाप्त कर दिया गया है। प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण और न्यायमूर्ति सूर्यकांत तथा न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने पांच मई को कहा था कि वह इस कानूनी प्रश्न पर दलीलों पर सुनवाई 10 मई को करेगी कि राजद्रोह पर औपनिवेशिक काल के दंडनीय कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं को केदारनाथ सिंह मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के 1962 के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए बड़ी पीठ को भेजा जाए या नहीं। गृह मंत्रालय के अवर सचिव मृत्युंजय कुमार नारायण द्वारा दाखिल हलफनामे के अनुसार इस विषय पर अनेक विधिवेत्ताओं, शिक्षाविदों, विद्वानों तथा आम जनता ने सार्वजनिक रूप से विविध विचार व्यक्त किये हैं। हलफनामे में कहा गया, ‘‘इस महान देश की संप्रभुता और अखंडता को बनाये रखने तथा उसके संरक्षण की प्रतिबद्धता के साथ ही यह सरकार राजद्रोह के विषय पर व्यक्त किये जा रहे अनेक विचारों से पूरी तरह अवगत है तथा उसने नागरिक स्वतंत्रताओं और मानवाधिकारों की चिंताओं पर भी विचार किया है।” इसमें कहा गया कि सरकार ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के प्रावधानों का पुन: अध्ययन और पुनर्विचार करने का फैसला किया है जो सक्षम मंच पर ही हो सकता है। हलफनामे में कहा गया, इसके मद्देनजर, बहुत सम्मान के साथ यह बात कही जा रही है कि माननीय न्यायालय एक बार फिर भादंसं की धारा 124ए की वैधता का अध्ययन करने में समय नहीं लगाए और एक उचित मंच पर भारत सरकार द्वारा की जाने वाली पुनर्विचार की प्रक्रिया की कृपया प्रतीक्षा की जाए जहां संवैधानिक रूप से इस तरह के पुनर्विचार की अनुमति है।

प्रधानमंत्री ने विचार को भी पेश किया

हलफनामे के अनुसार, प्रधानमंत्री इस विषय पर व्यक्त अनेक विचारों से अवगत रहे हैं। उन्होंने समय-समय पर अनेक मंचों पर नागरिक स्वतंत्रताओं तथा मानवाधिकारों के सम्मान के पक्ष में अपना स्पष्ट रुख व्यक्त किया है। इसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री ने बार-बार कहा है कि विविधतापूर्ण विचारों का यहां बड़ी खूबसूरती से आकार लेना देश की एक ताकत है। हलफनामे में कहा गया, प्रधानमंत्री मानते हैं कि जब देश ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है तो हमें एक राष्ट्र के तौर पर उन औपनिवेशिक चीजों से छुटकारा पाने के लिए और परिश्रम करना होगा जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। इनमें अप्रचलित हो चुके औपनिवेशिक कानून तथा प्रक्रियाएं भी हैं।

केंद्र ने पहले यह कहा था

पहले दाखिल एक और लिखित दलील में केंद्र ने राजद्रोह कानून को और इसकी वैधता को बरकरार रखने के एक संविधान पीठ के 1962 के निर्णय का बचाव करते हुए कहा था कि ये प्रावधान करीब छह दशक तक खरे उतरे हैं और इसके दुरुपयोग की घटनाएं कभी इनके पुनर्विचार को उचित ठहराने वाली नहीं हो सकतीं। उच्चतम न्यायालय राजद्रोह के कानून की वैधता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है।

याचिकाकर्ता की ऐसी दलील

सुप्रीम कोर्ट में रिटायर मेजर जनरल की ओर से अर्जी दाखिल कर कहा गया है कि आईपीसी की धारा-124 ए (राजद्रोह) कानून में जो प्रावधान और परिभाषा दी गई है वह स्पष्ट नहीं है। इसके प्रावधान संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार मिले हुए हैं। इसके तहत अनुच्छेद-19 (1)(ए) में विचार अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है। साथ ही अनुच्छेद-19 (2) में वाजिब रोक की बात है। लेकिन राजद्रोह में जो प्रावधान है वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत है।

राजद्रोह की ऐसी परिभाषा

राजद्रोह की जो परिभाषा में कहा गया है कि जो भी सरकार के प्रति डिसअफेक्शन यानी असंतोष, नाखुशी या विरक्ति जाहिर करेगा वह राजद्रोह की श्रेणी में आएगा। इस तरह देखा जाए तो प्रावधान के तहत प्रत्येक स्पीच और अभिव्यक्ति राजद्रोह बनता है। इसमें उम्रकैद की सजा का प्रावधान है।

गैर संवैधानिक करार देने की गुहार

रिटायर मेजर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई गई है कि इस कानून को परखा जाए और विचार अभिव्यक्ति के अधिकार, समानता का अधिकार और जीवन के अधिकार के आलोक में राजद्रोह कानून को गैर संवैधानिक करार दिया जाए।

क्या है केदारनाथ केस में फैसला

1962 में दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार के क्रिया कलाप यानी कामकाज पर कमेंट करने और आलोचना करने का अधिकार है। आलोचना का दायरा तय है और उस दायरे में आलोचना करना राजद्रोह नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ किया था कि आलोचना ऐसा हो जिसमें पब्लिक आर्डर खराब करने या हिंसा फैलाने की कोशिश न हो। अगर कोई ऐसा बयान देता है जिसमें हिंसा फैलाने और पब्लिक आर्डर खराब करने की प्रवृत्ति या कोशिश हो तो फिर राजद्रोह का मामला बनेगा।

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