मुफ्त के वादे पर कोर्ट खफा, केंद्र से पूछा- योजनाओं पर लगा सकते हैं रोक

—-चुनाव से पहले रेवड़ी कल्चर, शीर्ष न्यायालय ने माना गंभीर मुद्दा

खास बातें

00 याचिकाकर्ता बोले-मुफ्त के वादे करने पर खत्म हो मान्यता

00 सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय से मांगा जवाब

सुप्रीम कोर्ट से देश में चुनाव के दौरान मुफ्त की चीजें बांटने का वादा करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने की मांग की गई है। इस पर शीर्ष कोर्ट ने केंद्र से कहा कि वह वित्त आयोग से पता लगाए कि पहले से कर्ज में डूबे राज्य में मुफ्त की योजनाओं का अमल रोका जा सकता है या नहीं? कोर्ट ने यह भी कहा कि यह गंभीर मुद्दा है। ऐसी स्थिति पर अंकुश लगाने केंद्र उचित कदम उठाए।


नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त के चुनावी वादों के खिलाफ दायर याचिका पर मंगलवार को सुनवाई की। केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब मांगने के साथ कोर्ट ने 3 अगस्त को आगे सुनवाई तय की है। याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने जजों के ध्यान कर्ज में डूबे राज्यों की तरफ खींचा। उन्होंने कहा, पिछले चुनाव से पहले पंजाब पर 3 लाख 25 हजार करोड़ रुपए का कर्ज था। यानी पंजाब के हर नागरिक पर 1 लाख रुपए का कर्ज था, लेकिन चुनाव में ताबड़तोड़ मुफ्त योजनाओं की घोषणा हुई और अब उन्हें पूरा भी किया जा रहा है। इस पर चीफ जस्टिस ने उनसे पूछा कि वह खासतौर पर पंजाब का नाम क्यों ले रहे हैं? उपाध्याय ने जवाब दिया, सिर्फ एक राज्य की बात नहीं है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, यूपी जैसे राज्यों पर भी काफी कर्ज है। सभी राज्यों का मिला कर 70 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। पार्टियां मुफ्त योजना की घोषणा करती हैं, लेकिन राज्य के करदाता नागरिकों को यह नहीं बतातीं कि पहले से कितना कर्ज है। इस तरह हमारी स्थिति भी श्रीलंका जैसी हो जाएगी। इस याचिका पर अप्रैल में हुई सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि चुनाव से पहले या बाद में मुफ्त उपहार देना राजनीतिक दलों का नीतिगत फैसला है। वह राज्य की नीतियों और पार्टियों की ओर से लिए गए फैसलों को नियंत्रित नहीं कर सकता। आयोग ने कहा कि इस तरह की नीतियों का क्या नकारात्मक असर होता है? ये आर्थिक रूप से व्यवहारिक हैं या नहीं? ये फैसला करना वोटरों का काम है। आयोग ने अपने हलफनामे में कहा था कि चुनाव से पहले या बाद में किसी भी मुफ्त सेवा की पेशकश/वितरण संबंधित पार्टी का एक नीतिगत निर्णय है और क्या ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से व्यवहारिक हैं या राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य पर इसका उल्टा असर पड़ता है, इस सवाल पर राज्य के मतदाताओं को विचार कर निर्णय लेना चाहिए। चुनाव आयोग ने यह हलफनामा वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका के जवाब में दाखिल किया था। याचिका में दावा किया गया है कि चुनाव से पहले सार्वजनिक धन से तर्कहीन मुफ्त का वादा या वितरण एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिलाता है। चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता को खराब करता है। दलों पर शर्त लगाई जानी चाहिए कि वे सार्वजनिक कोष से चीजें मुफ्त देने का वादा या वितरण नहीं करेंगे।

चुनाव आयोग का नकारात्मक जवाब

याचिका का जवाब देते हुए चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि वह मुफ्त की चीजें बांटने का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द नहीं कर सकता। आयोग ने कहा है कि ऐसा करना उसके अधिकार में नहीं आता। आयोग ने यह भी कहा है कि किसी सरकार की नीति क्या होगी, इसे चुनाव आयोग नियंत्रित नहीं कर सकता। अगर ऐसी घोषणाओं को पूरा करने से किसी राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ती है, तो इस पर राज्य की जनता का फैसला लेना ही उचित है।

कोर्ट ने जताई हैरानी

अश्विनी उपाध्याय ने दलील दी कि पार्टियों को मान्यता देना और चुनाव चिह्न आवंटित करना चुनाव आयोग का काम है। वह इससे जुड़े नियमों में परिवर्तन कर सुनिश्चित कर सकता है कि कम से कम मान्यता प्राप्त पार्टियों की तरफ से ऐसी घोषणाएं न हों। मामले की सुनवाई कर रही बेंच के अध्यक्ष चीफ जस्टिस एन वी रमन्ना ने भी चुनाव आयोग के रवैये पर हैरानी जताई। उन्होंने कहा कि यह एक बहुत गंभीर विषय है। आयोग को इस तरह अपने हाथ खड़े नहीं कर देने चाहिए।

केंद्र ने भी दिया टालमटोल भरा जवाब

चुनाव आयोग के लिए पेश वकील ने कहा कि कानून बनाना सरकार और संसद के अधिकार क्षेत्र में है। आयोग अपनी तरफ से ऐसा नहीं कर सकता। इस पर कोर्ट ने केंद्र सरकार के लिए पेश एडिशनल सॉलिसीटर जनरल के एम नटराज से सवाल किया। नटराज ने कहा कि किसी नए कानून की जरूरत नहीं है। चुनाव आयोग को मौजूदा कानूनों के हिसाब से काम करना चाहिए। चीफ जस्टिस ने आयोग और केंद्र सरकार के इस टालमटोल भरे रवैए पर नाराजगी जताते हुए कहा, यही बातें केंद्र भी हलफनामे में लिख कर दे दे कि इस मामले में वह कुछ नहीं करना चाहता।

कोर्ट ने वित्त आयोग से पूछा सवाल

इस पर चीफ जस्टिस ने कोर्ट में एक दूसरे मामले की सुनवाई के लिए मौजूद वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल से सवाल किया, आप वरिष्ठ सांसद भी हैं। आप बताइए कि क्या समाधान हो सकता है? सिब्बल ने कहा, सरकार की तरफ से नया कानून बनाने से राजनीतिक विवाद होगा। इस समस्या के हल के लिए वित्त आयोग उचित मंच है। वित्त आयोग हर राज्य को खर्च के लिए पैसे आवंटित करता है। वह राज्य से बकाया कर्ज का हिसाब लेते हुए आवंटन कर सकता है। इससे इस गंभीर समस्या के हल में मदद मिलेगी। कोर्ट ने इससे सहमति जताते हुए एडिशनल सॉलिसीटर जनरल नटराज से कहा कि वह वित्त आयोग से इस विषय पर राय पूछें और कोर्ट को उससे अवगत कराएं. मामले को अगले हफ्ते 3 अगस्त को सुना जाएगा।

हज, उमरा के टूर पैकेज पर जीएसटी की छूट नहीं

इधर, सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य मामले में ने हज एवं उमरा के लिए दिए जाने वाले टूर पैकेज पर जीएसटी से छूट देने की अपील करने वाली कई याचिकाएं मंगलवार को खारिज कर दीं। निजी टूर ऑपरेटरों ने हज एवं उमरा से संबंधित टूर पैकेज पर जीएसटी से रियायत देने की अपील करते हुए कई याचिकाएं दाखिल की थीं। उनमें कहा गया था कि सऊदी अरब जाने वाले हज यात्रियों पर जीएसटी लगाना उनके साथ भेदभाव करने जैसा है। न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति ए एस ओका और न्यायमूर्ति सी टी रविकुमार ने इन याचिकाओं को जीएसटी से राहत देने और भेदभाव बरतने दोनों ही आधारों पर खारिज कर दिया। पीठ ने कहा कि भारत के बाहर दी जाने वाली सेवाओं पर जीएसटी लगाने का मसला एक अन्य पीठ के समक्ष विचाराधीन है। टूर ऑपरेटरों का कहना था कि देश से बाहर इस्तेमाल की जाने वाली सेवाओं पर संविधान के अनुच्छेद 245 के तहत जीएसटी नहीं लगाया जा सकता है। इस आधार पर हज टूर पैकेज पर जीएसटी से छूट दी जानी चाहिए।

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