जीवों का वध हो रहा और आप कुछ नहीं कहते तो आप उसे दे रहे समर्थन

आचार्यश्री ने 7 जनवरी को चंद्रगिरी में दिया था अंतिम प्रवचन

  • आचार्य श्री विद्यासागर महाराज

गाय प्रातः जंगल की ओर जाती है और भिन्न-भिन्न स्थानों में जाकर चारा जो घास-फूस आदि जो उपलब्ध होता है, उसे चरना प्रारंभ कर देती है। उनको कोई थाली नहीं परोसता और न ही किसी विद्यालय में उनको सिखाया जाता है कि क्या खाना, क्या पीना है। जंगल में भिन्न-भिन्न वनस्पति होती है, लेकिन गाय सूंघकर केवल खाने योग्य वनस्पति का ही सेवन करती है और जो खाने योग्य नहीं होती (विषाक्त वनस्पति) का सेवन नहीं करती है। सूखा खाती है हरी को देखती तक नहीं और आपको सूखा तो कभी पसंद आता नहीं। आहार संज्ञा एक ऐसी संज्ञा है। जिसमे हेय और उपादेय का बोध आपको करना पड़ता है। दिन में खाती है और रात में जुगाली के माध्यम से पचाती है। उदाहरण के माध्यम से आचार्यश्री ने बताया कि गाय रात में उसका चरबन करके लार से समिश्रण कर दिनभर खाया, उसे पचा देती है। खाना अलग वस्तु होती है और पचाना अलग है| पचाये बिना रक्त आदि में परिवर्तित नहीं होता है। पचाने में विलंब होता है, तो वह जब तक पूरा नहीं पचेगा, तब तक नए सिरे से नहीं खाती। बीच-बीच में डकार भी लेती है। श्वांस और निःश्वांस के माध्यम से वायु को ग्रहण और निष्कासित कर देती है। सारी क्रियाएं बिना प्रशिक्षण और बिना विद्यालय के होती है। आहार संज्ञा मतलब इच्छा का होना। बच्चों को जब तक नहीं खिलाना, जब तक उनकी इच्छा न हो। ग्रहण और पाचन में अंतर है। श्रमणों को भी समझना चाहिए कि हम कहां अवैध रूप से काम कर रहे हैं। दिन में गाय, पशु, पक्षी खाकर आ जाते हैं और चरबन (जुगाली) करते हैं, जो चरबन नहीं करते वे बिल्ली, कुत्ता, सिंह, खरगोश आदि होते हैं।

इसी प्रकार आप लोगों को जो दिन में पढ़ाया/सुनाया (प्रवचन/स्वाध्याय) जाता है, उसे रात में चिंतन करना चाहिए। रात में लाइट जलाकर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि कहीं लाइट पहले से जल रही हो और आप उसके नीचे जाकर पढ़ते हैं तो उस लाइट द्वारा हो रहे जीवों के घात के दोष में आप भी भागीदार होंगे। हमारी सेवा के लिए सूर्य देवता नियुक्त है और आप लोग उसके सामने से भाग जाते हो। हम तो आप लोगों से ही परहेज करते हैं। दिन के 12 घंटे समय पर्याप्त है। सभी कार्य करने के लिए और रात के 12 घंटे सभी कार्य और सभीजनों से परहेज हो जाता है। विशेष ग्रंथ के स्वाध्याय के बाद चर्चा करते हैं, जिस प्रकार विशेष भोजन विशेष बच्चों को ही दिया जाता है, जो इसे अच्छे से पचा सके। उसी प्रकार विशेष ग्रंथ का स्वाध्याय हर किसी को नहीं कराया जाता है। इसके लिए भी योग्य व्यक्ति का होना आवश्यक है। पहले हमने जो धर्मोपदेश दिया है, उसको पहले समझो और दूसरों को भी पढ़ाओ, तब आगे और देंगे, जो वर्षों पढ़कर प्राप्त नहीं होता वो 15 मिनट या आधा घंटे के प्रवचन में प्राप्त हो जाता है। हमारे लिए कहा गया है कि जो पाठ्यक्रम में है, उसी को पढ़ो और पूछो। ग्राहकों की पहचान समझते हो। ग्राहकों को मनाना सीखो। व्यवहार मीठे रखो। नाती के उम्र वाले को भी दद्दा कहो, कक्का कहो। ये सब विद्यालय के बिना हुआ। आपके पास भी संज्ञा है और उसके पास भी संज्ञा है। मां ज्यादा रसोई नहीं बनाती, ताकि बच्चा और न मांगे। मांग ले तो बेटा कल। तो बेटा सोचता है कि कल और नए व्यंजन खाने को मिलेंगे। मां जानती है कि बच्चा यदि ज्यादा खाएगा तो उसे पचा नहीं पाएगा और बीमार हो जाएगा, इसलिए कल की छुट्टी करने की अपेक्षा कम खाओ। समय के अनुसार भूख लगती है तो समय पर भोजन करना चाहिए, नहीं तो भूख मर जाती है, फिर खाने की इच्छा नहीं होती, बिना इच्छा के खाओगे तो उलटी हो जाएगी। उसी प्रकार जितना स्वाध्याय करे हो पहले उसका चिंतन करो, फिर आगे का सोचो, तभी उसकी सार्थकता है| कृत, कारित, अनुमोदन यह महत्वपूर्ण करण माने जाते हैं। जीवों के वध में वध हो रहे हैं और वहां आप कुछ कहते नहीं तो आप उसे समर्थन दे रहे हो।

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