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राजनांदगांव। पर्वराज अष्टमी की अर्द्धरात्रि के बाद श्रमण संस्कृति का सूर्य अस्त हो गया। करीब 57 सालों से महावीर सहित अन्य तीर्थंकरों की अमृत वाणी और जीवन के वास्तविक उद्देश्य से लोगों को अवगत कराने वाले जैनाचार्य विद्यासागर महाराज ने अंतिम यात्रा में जाने से पहले अपना दायित्व मुनिश्री 108 समय सागर जी महाराज काे सौंपा। गृहस्थ जीवन के भाई और प्रथम शिष्य निर्यापक मुनिश्री समय सागर महाराज धर्मध्वजा को संभालेंगे।
जैन समाज के सबसे बड़े संत, राष्ट्र चिंतक और तपोनिष्ठ जैनाचार्य विद्यासागर महाराज शनिवार की मध्य रात्रि के बाद 2.35 बजे उस सफर पर चले गए, जहां से कोई लौट कर नहीं आता। उल्लेखनीय है कि जैनाचार्य विद्यासागर महाराज महाराष्ट्र के शिरपुर में चातुर्मास करने के बाद करीब 466 किमी की दूरी नंगे पैर तय जनवरी 2023 को राज्य के पहले जैन तीर्थ चंद्रगिरि पहुंचे थे। इस अवधि में उन्होंने सवोदय तीर्थ अमरकंटक और तिल्दा नेवरा में आयोजित श्री जिन बिम्ब पंच कल्याणक महोत्सव में शिरकत किया। तिल्दा नेवरा प्रवास के बाद हाल के महीनों में आचार्यश्री पुन: चंद्रगिरि तीर्थ पहुंचे। इस अवधि में उनके स्वास्थ्य में काफी गिरावट देखने मिला और वैद्यों की लगातार कोशिश के बाद भी स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो सका और शनिवार की रात्रि 2.30 बजे आचार्यश्री ब्रम्हलीन हो गए। मुनियों और श्रावक श्राविकाओं की मौजूदगी में उनके पार्थिव शरीर को पंचतत्व में विलीन किया गया।
0 त्यागा आहार
जानकारी के अनुसार पूर्ण जागृतावस्था में उन्होंने आचार्य पद का त्याग करते 3 दिनों तक उपवास किया। उन्होंने आहार एवं संघ का प्रत्याव्याख्यान, प्राश्चित देना करने के साथ अखंड मौन धारण कर लिया था। गत् 6 फरवरी को दोपहर शौच से लौटने के बाद संघ के अन्य मुनिराजों को अन्यत्र भेजकर निर्यापक मुनिश्री याेग सागर महाराज से चर्चा करते हुए संघ संबंधी कार्यों से निवृत्ति ले लिया और इसी दिन आचार्य पद का त्याग करते अपने प्रथम शिष्य निर्यापक श्रमण मुनिश्री समय सागर महाराज को योग्य समझते हुए यह दायित्व सौंपने की मंशा जाहिर की थी।
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0 पूरे परिवार ने थामा धर्मध्वजा
श्रमण संस्कृति में बिरले ही ऐसा उदाहरण देखने मिलता है, जब पूरा परिवार सब कुछ त्याग कर धर्म की प्रभावना बढ़ाने निकल पड़ा हो। ब्रम्हलीन जैनाचार्य विद्यासागर जी महाराज ने 30 जून 1968 को मात्र 22 साल की आयु में आचार्य ज्ञान सागर महाराज ने दीक्षा ग्रहण किया था। पारखी ज्ञानसागर महाराज ने उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए चार साल बाद ही 1972 में आचार्य पद का दायित्व सौंप दिया था। उल्लेखनीय है कि आचार्यश्री के पिता श्री मलप्पा, माता श्रीमंती, भाई अनंतनाथ, शांतिनाथ, बहन शांता, सुवर्णा ने भी दीक्षा ले लिया था। पूरे परिवार के दीक्षा लेने के बाद एक मात्र भाई पारिवारिक दायित्व को निर्वहन कर रहे थे, जिन्होंने भी बीते साल दीक्षा ग्रहण कर लिया था।
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चीनी, नमक और हरि सब्जियों का त्याग
आचार्यश्री संयमित जीवन के अप्रितम उदाहरण थे। उन्होंने चीनी, नमक, हरि सब्जियों, फल, मेवे, अंग्रेजी औषधि, तेल, भौतिक साधन, थूकने का आजीवन त्याग कर रखा था। वह विश्राम के लिए चटाई का भी उपयोग नहीं करते थे और एक करवट ही सोते थे।
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