-सुप्रीम कोर्ट बोला
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गंभीर मामलों, जिनमें उम्रकैद के साथ मौत की सजा का भी विकल्प हो, निचली अदालतें अभियुक्तों को उनकी प्राकृतिक मौत तक के लिए उम्र कैद की सजा नहीं दे सकती हैं। निचली अदालतों को निश्चित अवधि के लिए छूट (पैरोल, छूट या फरलो) के हक के बिना भी आजीवन कारावास की सजा देने का अधिकार नहीं है। ऐसी सजा देने का अधिकार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को ही है। जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस एस रविंद्र भट की पीठ अपहरण और हत्या के मामले में दिल्ली की एक निचली अदालत से बिना छूट के 30 वर्ष कैद की सजा पाए दोषियों विकास चौधरी और विकास सिद्धू की अपील पर सुनवाई कर रही थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा था। पीठ ने भारत संघ बनाम श्रीहरन व मुरुगन और अन्य (2015) 14 एससीआर 613 मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का संज्ञान लिया।
अभियुक्तों की सजा को 20 साल कैद में बदला
हालांकि, पीठ ने कहा कि श्रीहरन (2015) में शीर्ष अदालत ने कहा कि इस तरह के विशेष या निश्चित अवधि की सजा देने का अधिकार केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को ही है। पीठ ने कहा कि श्रीहरन मामले में शीर्ष अदालत के फैसले के मद्देनजर निचली अदालत को इस तरह का फैसला देने का अधिकार ही नहीं है। पीठ ने अपील को स्वीकार कर लिया और दोषियों को दी गई सजा को कम करते हुए कम से कम 20 साल के वास्तविक कारावास में बदल दिया।
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